एक रिपोर्ताज…
फिजी के भारत में उच्चायुक्त का अभिनंदन एवं सांस्कृतिक समारोह…
‘आज भी फिजी की फिज़ाओं में भारतीय संस्कृति रची-बसी है…कमलेश जी’
फिजी गणराज्य के भारत में हाई-कमिश्नर कमलेश जी का सम्मान…
रामकुमार, डॉ सतीश, डॉ अलंग और आचार्य वाजपेयी का कविता-पाठ…
श्रुति प्रभला का मंत्रमुग्ध कर देने वाला शास्त्रीय गायन…
एक विश्वविद्यालय की मेजबानी…फिजी गणराज्य के भारत में हाई-कमिश्नर का सम्मान…चार चोटी के कवियों का कविता-पाठ और फिज़ा में गूंजती शास्त्रीय राग-रागनियां…अद्भुत आयोजन था यह . बिलासपुर में हुआ, मंगलवार की शाम को, लखीराम ऑडिटोरियम में . श्लोक-ध्वनि फाउंडेशन भी इसमें बराबरी में हिस्सेदार बना .
दरअसल, इसी दिन सुबह बिलासपुर के अटल बिहारी वाजपेयी विश्वविद्यालय में दीक्षांत समारोह आयोजित था . फिजी के उच्चायुक्त कमलेश शशि प्रकाश, कुलपति आचार्य अरुण दिवाकर नाथ वाजपेयी के विशेष आग्रह पर बिलासपुर पहुंचे हुए थे . वहां उन्होंने दीक्षांत भाषण दिया . शाम के वक्त उनके सम्मान में एक कार्यक्रम आयोजित किया गया . इसे नाम दिया गया…सम्मान एवं सांस्कृतिक संध्या…
शुरुआत हाई-कमिश्नर कमलेश जी के उद्बोधन से हुई . उन्होंने कहा कि भारत में आकर ऐसा लग रहा है मानो अपने ही घर आ गया हूँ .
बिलासपुर आकर तो इसकी अनुभूति और भी ज्यादा हो रही है . इतना प्रेम, इतना सम्मान कहीं और नहीं मिला . माहौल को हल्का करने के लिहाज़ से उन्होंने हंसी के बीच कहा कि इतनी शाल और इतने नारियल मिल गए हैं कि सोचता हूँ एक शाल की दुकान खोल लूं और साथ में नारियल का तेल भी बेचूं .
कमलेश जी ने सुबह ही दीक्षांत भाषण में कहा था “स्माल इज ब्यूटीफुल”. स्वयं को छोटे-से देश फिजी का नागरिक बताया था . शाम को भी कहा कि फिजी 360 छोटे-छोटे द्वीप-समूहों का देश है . कुल जमा साढ़े नौ लाख की आबादी वाला छोटा-सा देश है मेरा . बहुत ही खूबसूरत है, हर लिहाज से, पर्यटन की दृष्टि से भी .
उन्होंने कहा कि आज भी फिजी की फिजाओं में भारतीय संस्कृति रची-बसी है . उन्होंने फिजी और भारत का नाता जोड़ते हुए फिजी के इतिहास का अत्यंत मार्मिक चित्र खींचा . उन्होंने कहा कि लगभग 150 बरस पहले, जब भारत में गोरों का शासन था, तब यहाँ से एक बड़े शिप में 500 की संख्या में बंधुआ मजदूर फिजी भेजे गए थे . महीनों की समुद्री यात्रा कर भारतीय लोग फिजी के समुद्री तट पर पहुंचे . पानी के जहाज में मौजूद अधिकांश लोगों को मीजल्स और कालरा जैसी गंभीर बिमारियों ने घेर लिया था . जो बच गए उन्हें गोरों के अत्याचार का सामना करना पड़ा . असल में, उस दौर में ब्रिटिश साम्राज्य का विस्तार दक्षिण अमेरिका, अफ्रीका और एशिया तक हो रहा था और उन्हें श्रमिकों की आवश्यकता थी . यहीं से दासता की अमानवीय प्रथा की शुरुआत हुई . इसे अनुबंध-श्रम का नाम दिया गया . बाकायदा एक एग्रीमेंट कराया जाता था . गिरमिट इसी एग्रीमेंट का अपभ्रंश है . गिरमिटिया प्रथा के तहत फिजी, दक्षिण अफ्रीका, मॉरीशस, मलेशिया और श्रीलंका जैसे अनेक देशों में भारतीय मजदूरों को भेजा गया . बाद में भारत से हजारों की संख्या में बंधुआ मजदूर फिजी भेजे गए . वहां मजदूरों की शारीरिक क्षमता के हिसाब से बोली लगाई जाती थी, उनसे मार-पीट की जाती थी और हाड़-तोड़ मेहनत-मजदूरी कराई जाती थी .
कमलेश जी बताते हैं, हमारे पूर्वज, भारतीय गिरमिटिया मजदूरों ने अंग्रेजों के जुल्म सहते हुए फिजी का नक्शा बदल दिया . घने बियाबान जंगलों में रास्ता बनाया . वहां की जमीन को खेती के योग्य बनाया . हमारे पूर्वजों को वहां काफी कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ता था, क्योंकि वहाँ पर्याप्त भोजन, स्वच्छ पानी, स्वच्छता और स्वास्थ्य सेवाओं की कमी थी . यहाँ से जो मजदूर गए थे उनमें कुछ पढ़े-लिखे भी थे . गोरे मालिकों की नजर चुराकर वहां उन्होंने स्कूल शुरू किये और अपने बच्चों को शिक्षा दी . उन्होंने जानकारी दी कि भारत से जो भी मज़दूर फिजी सहित अन्य देशों में भेजे गए वे अपने साथ अपनी संस्कृति को भी भाषा, भोजन और संगीत के माध्यम से वहाँ ले गए . उन्होंने वहां एक अनूठा सामाजिक-सांस्कृतिक पारिस्थितिक तंत्र विकसित किया . हमारे अग्रज अपने साथ रामायण और भगवत गीता लेकर गए थे . ज्यादातर हिंदी भाषी थे . अपने बच्चों को उन्होंने भारतीय भाषा और संस्कृति से जोड़े रखा . बांस और नारियल के पत्तों से झोपड़ीनुमा स्कूल बनाये .
कमलेश जी ने उस दौर में एक भारतीय लेखक तोताराम सानिढ्य का जिक्र करते हुए कहा कि उन्होंने फिजी से लौटकर गिरमिट प्रथा और भारतीयों पर गोरों के जुल्म-ओ-सितम की दास्तां कलमबद्ध की . क्षेत्रीय भाषाओँ में भी इसका प्रकाशन किया गया . उन्होंने महात्मा गाँधी, गोखले और सरोजनी नायडू से मुलाकात की . स्वतंत्रता सेनानियों ने इस प्रथा का जमकर विरोध किया . अंततः वर्ष 1920 में ब्रिटिश शासन ने इस प्रथा पर पूर्णतः प्रतिबन्ध लगा दिया .
कमलेश जी कहते हैं, अपनी मज़दूरी की शर्तों को पूरा करने के बाद कुछ गिरमिटिया मज़दूर वापस भारत लौट आए, जबकि अधिकतर लोग वहीं रह गए . कालांतर में उन्होंने वहीँ अपना परिवार बसा लिया और गुजर-बसर करने लगे .
कमलेश जी ने यह कहकर सभी को चौका दिया कि उस दौर में छत्तीसगढ़ के इलाके से 123 लोग गिरमिट प्रथा के तहत फिजी गए थे . उन्होंने प्रसन्नता जाहिर की कि हमारे (फिजी) और छत्तीसगढ़ के बीच बरसों पुराने संबंध रहे हैं . छत्तीसगढ़ के लोगों का फिजी के विकास में बहुत बड़ा योगदान है .
कमलेश जी ने सुबह दीक्षांत समारोह में कहा था कि वे अटल यूनिवर्सिटी के फिजी विश्वविद्यालयों के साथ संस्थागत संबंधों को आगे बढ़ाने की दिशा में सतत प्रयास करेंगे . शाम को उन्होंने फिर कहा कि मई माह में 11-12 तारीख को एक कांफ्रेंस के दौरान अटल बिहारी वाजपेयी विश्वविद्यालय के कुलपति आचार्य अरुण दिवाकर नाथ वाजपेयी को एक बार पुनः आमत्रित किया गया है . उन्होंने कहा कि 15 मई को फिजी में “गिरमिट स्मरण दिवस” मनाया जायेगा .
छत्तीसगढ़ पर्यटन विभाग के अध्यक्ष अटल श्रीवास्तव ने कमलेश जी की बिलासपुर आगमन और इस सम्मान समारोह को गौरवशाली क्षण बताया . उन्होंने उम्मीद जताई कि फिजी के राजनयिक के प्रवास से छत्तीसगढ़ के फिजी गणराज्य के साथ सांस्कृतिक, शैक्षणिक और वाणिज्यिक संबंधों को मजबूती मिलेगी . कार्यक्रम में विशिष्ट अतिथि प्रमोद नायक भी उपस्थित थे . कुलपति प्रोफेसर वाजपेयी ने कमलेश जी के सहज, सरल स्वभाव और फिजी में हुए 12वें विश्व हिंदी सम्मेलन के संस्मरण सुनाए . उन्होंने भी फिजी के उच्चायुक्त के बिलासपुर आगमन को अविस्मरणीय क्षण बताया .
कार्यक्रम के आरम्भ में अतिथियों ने दीप प्रज्ज्वलित किया . कुलपति प्रोफेसर एडीएन वाजपेयी ने अतिथियों का पुष्पगुच्छ देकर स्वागत किया . अटल विश्वविद्यालय की ओर से कुलसचिव शैलेन्द्र दुबे, एच एस होता, सौमित्र तिवारी, विकास शर्मा ने कमलेश शशि प्रकाश का स्मृति चिन्ह, बुके, शाल और श्रीफल देकर अभिनन्दन किया . विश्वविद्यालय के पीआरओ हर्ष पाण्डेय ने अभिनंदन-पत्र का वाचन किया .
बिलासपुर शहर की अनेक संस्थाओं ने पुष्पगुच्छ, शाल और श्रीफल देकर कमलेश जी का स्वागत किया, जिनमें श्लोक-ध्वनि फाउंडेशन, लायंस क्लब वसुंधरा, कविता चौपाटी से, छंद शाला, बिलासपुर प्रेस क्लब, सीएमडी कॉलेज, छत्तीसगढ़ वरिष्ठ नागरिक संघ, अनुभव पत्रिका, स्पीक मैके छत्तीसगढ़, अरपा अर्पण, छत्तीसगढ़ साइंस सेंटर, आदर्श कला मंदिर, बिलासपुर प्रमुख थे .
कविता-पाठ ; जुड़ता हूँ मैं संसार से मनुष्य होने के कारण, इसके लिए मुझे ईश्वर नहीं होना पड़ता…
कुल जमा चार कवि इस सम्मान समारोह में मौजूद थे . सभी एक से बढ़कर एक, बड़े नामचीन साहित्यकार और कवि . काव्य-पाठ के संचालक श्रीकुमार ने कहा भी, यह एक ही मंच पर चार कवियों का दुर्लभ समागम है . कविता-पाठ के क्रम में रामकुमार तिवारी, अध्यक्ष श्रीकांत वर्मा पीठ बिलासपुर, डॉ. सतीश जायसवाल वरिष्ठ साहित्यकार, पत्रकार, डॉ. संजय अलंग, संभागायुक्त बिलासपुर एवं प्रोफेसर एडीएन वाजपेयी ने अपनी-अपनी प्रतिनिधि रचनाएं पढीं .
शुरुआत रामकुमार तिवारी ने की . उन्होंने कहा कि कविता कहना मुश्किल है, नई कविता तो और भी मुश्किल . ऐसे समय में जब जीवन और समाज का छंद बिखर गया है तब कविता का, किसी रचना का छंद मुश्किल से बनता है . नई कविता सुनने की नहीं, पढ़ने की हो गई है . उन्होंने श्रोताओं से अतिरिक्त सजगता की मांग की और यथार्थ के होने, न होने की और प्रकृति से जुड़ी कुछ रचनाएँ सुनाई . उनकी पहली कविता “धीरे धीरे नष्ट करते हैं” और फिर समय पर रचना के अतिक्रमण को दर्शाती कविता “रोते हुए बाबा भारती मिले” ने श्रोताओं को अन्दर तक झकझोर कर रख दिया . एक स्मृति “धरती पर जीवन सोया था” तथा शाम और शाम के बाद रात होने के बिम्बों के जरिये “निरंतरता” को उन्होंने पूरी गंभीरता से उकेरा .
दूसरे कवि थे देश के जाने-माने कथाकार, पत्रकार डॉ सतीश जायसवाल . उन्होंने पर्यटन केन्द्रित राष्ट्र- फिजी के राजनयिक कमलेश जी और छत्तीसगढ़ के पर्यटन विभाग के अध्यक्ष अटल श्रीवास्तव की उपस्थिति में कहा कि इस समय पतझड़ का मौसम है और हमारे छत्तीसगढ़ में पतझड़ “खिलता” है . सबसे ज्यादा रंग भी पतझड़ में ही खिलते हैं और उसमें प्रमुखता से पलाश सबसे अधिक दमकता है . उन्होंने छोटी-सी कविता “पलाश” से शुरुआत की . अपने धीर-गंभीर, विशेष अंदाज़ के साथ सतीश जी ने दहकते पलाश को जीवन के संघर्ष और एकाकीपन से जोड़ा . बाद में उन्होंने नए भावबोध और बिम्बों के साथ “होना न होना”, “एक पत्थर का टुकड़ा” रचनाएं भी सुनाई . उनकी एक अन्य कविता में जीवन के नए मूल्य और दार्शनिक भाव साफ़ झलक रहे थे . आखिर में उन्होंने लम्बी कविता “एक अपनी नदी के बिना” के जरिये अपने शहर और उसमें बहती (?) “अरपा” नदी की पहचान को रेखांकित किया .
तीसरे कवि, बिलासपुर के संभागायुक्त और कवि-लेखक डॉ संजय अलंग ने कहा कि कमलेश जी का हमारे बीच होना और उनका स्वागत किया जाना ही कविता है . कविता सबको खुश करती है . कमलेश जी की उपस्थिति हमें वैश्विक होने की तरफ ले जा रही है . “क्रमांक वाला विश्व” में उन्होंने नंबरों में बंटे हुए विश्व पर कटाक्ष करते हुए चिंता जाहिर की कि “किसका है यह पहले, दूसरे या तीसरे क्रमांक वाला विश्व, जो बन गया है पैसों की उपलब्धता के आधार पर, कसा गया है जिसे अर्थतंत्र के पैमाने पर” .
डॉ अलंग की पैसिफिक क्षेत्र की पृष्ठभूमि में एक लोककथा के आधार पर रची गई दूसरी कविता “धरती खाने वाली औरत” ने बरबस ही श्रोताओं का ध्यान खींचा . आखिर में “माध्यम” के माध्यम से उन्होंने यथार्थवादी दृष्टिकोण की अनुभूति कराई . उनका कहना था “जुड़ता हूँ मैं संसार से मनुष्य होने के कारण, इसके लिए मुझे ईश्वर नहीं होना पड़ता“ .
दोहे-गीत-ग़ज़ल के शहंशाह और अटल विश्वविद्यालय के कुलपति आचार्य अरुण दिवाकर नाथ वाजपेयी चौथे कवि के रूप में श्रोताओं से मुखातिब हुए . आचार्य वाजपेयी ने साफ़ कहा कि मेरी कविता का संसार, उसकी लय-ताल आज की कविता से बिलकुल भिन्न है . उन्होंने कहा कि कविता में सत्य होता है . कवि, जो हो रहा है, वह भी लिखता है और जो नहीं हुआ है, आगे होने वाला है, वह भी लिख देता है . भविष्यदृष्टा होता है कवि . उन्होंने दार्शनिक भाव लिए एक गीत के 4 बंध स-स्वर सुनाये . गीत के बोल थे…”जिसने धरम को धरम माना, जिसने करम को करम माना, वो स्वतंत्र अवतरित हुआ है, जिसने धरम को धरम न माना, जिसने करम को करम न माना” . आगे उन्होंने जीवन-मृत्यु को व्याख्यायित किया…”सुबह दो अँखियाँ खुली तो क्या है, सांझ दो पंखियाँ मुंदी तो क्या है, जीवन जिया उसी ने ढंग से, जिसने मृत्यु को मृत्यु न माना” .
गीत के बाद आचार्य वाजपेयी ने अपने फिजी प्रवास के दौरान 12वें विश्व हिंदी सम्मेलन के अनुभवों को साझा किया . उन्होंने फिजी के राष्ट्रपति के उद्गार याद किये जिन्होंने कहा था कि “फिजी की धरती पर अभी तक अंतर्राष्ट्रीय स्तर का इस प्रकार का आयोजन कभी भी नहीं हुआ“. आचार्य वाजपेयी ने बताया कि फिजी में आयोजित विश्व हिंदी सम्मेलन में 4 हजार प्रतिनिधि पहुंचे थे . इस पूरे आयोजन के सूत्रधार कमलेश जी थे .
श्रुति के शास्त्रीय गायन ने सबका मन मोह लिया…
सम्मान और सांस्कृतिक संध्या की अंतिम कड़ी में श्रुति प्रभला का शास्त्रीय गायन आयोजित था . बिलासपुर की श्रुति छोटी-सी उम्र में पक्के रागों की सुर-साधिका है . आगरा संगीत घराने से ताल्लुक रखती है . उस्ताद वसीम अहमद खान उसके गुरु हैं . श्रुति ने राग यमन में राम भजन “जय रघुनन्दन जय सियाराम” से गायन की शुरुआत की . श्रुति की इस अनूठी प्रस्तुति ने श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर भक्ति-रस में डुबो दिया .
शास्त्रीय गायिका श्रुति ने अपने गायन को आगरा घराने की एक बंदिश सुनाकर विस्तार दिया . यह “छोटा खयाल” भी राग यमन के शास्त्रीय दायरे में बंधा हुआ था . “ए री आली पिया बिन” में उन्होंने आरम्भ में राग वाचक आलाप लिया . मध्य लय और द्रुत में उच्चारण की शुद्धता और स्पष्टता ने “छोटा खयाल” सुनने वालों के कानों में मिसरी घोल दी . श्रुति की गायिकी की मधुरता, आलापचारी की शुद्धता और तानों को लगाने के सलीके ने संगीत की महफ़िल को ख़ास बना दिया . तबले पर दीपक साहू की थाप ने श्रुति की गायकी को और भी प्रभावोत्पादक बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी .
सांस्कृतिक संध्या में सर्वाधिक आकर्षण का केंद्र बनकर उभरी, श्रुति की गाई “ठुमरी”. ठुमरी शास्त्रीय संगीत की एक आधुनिक शैली है जिसमें श्रृंगार गायकी की प्रमुखता होती है . श्रुति ने कहा भी कि ठुमरी नाम से ही स्पष्ट है कि इसे सुनने पर ठुमकने का जी चाहता है . श्रुति ने जब स्वर-लय-ताल के माध्यम से “हो गई बेरिया पिया के आवन की” में राग मिश्र-कीरवानी की मूल भावनाओं को अभिव्यक्ति दी तब हॉल में बैठे हर श्रोता का मन-मयूर नाच उठा . “चैती” में भी कमोबेश ऐसा ही समां बंधा . एक तो, चैत्र मास, उस पर राग मिश्र पहाड़ी में बंधी “चैती” . के ठेठ अवधिया बोल “सेजिया से सैयां रूठी गईले हो रामा” ने श्रोताओं को मदहोश कर दिया .
संगीत-सभा उफान पर थी . अभी एक “होरी” गीत बाकी था . उप-शास्त्रीय संगीत प्रधान “होरी” गीत राग मिश्र कामोद पर आधारित था . “रंग डारूंगी नन्द के लालन पे” में श्रुति ने राग की शास्त्रीयता और लय-ताल के अनुशासन का बखूबी अनुपालन किया और माहौल में फाल्गुन के रंग घोल दिए .
अब, संगीत-सभा समाप्ति की ओर थी . श्रुति ने अपनी गायकी का आगाज़ भक्ति-गीत से किया था, समापन भी उन्होंने एक भजन गाकर किया . श्रुति ने राग भैरवी का चयन किया . यह परंपरा भी है, शास्त्रीय संगीत के प्रत्येक अनुष्ठान का शेष राग भैरवी से ही होता है . श्रुति ने पंडित भीमसेन जोशी का सर्वाधिक लोकप्रिय भजन “जो भजे हरि को सदा, सोहि परम पद पायेगा“ सुनाया . उन्होंने अभिभूत कर देने वाले भक्ति-संगीत से रुचिसंपन्न श्रोताओं को अतीन्द्रिय लोक की सैर करने के लिए छोड़ दिया . पूरी संगीत-सभा के दौरान तबले पर युवा तबला-वादक दीपक साहू ने संगत की . हारमोनियम में श्रुति स्वयं थी .
कार्यक्रम के बाद फिजी के उच्चायुक्त कमलेश शशि प्रकाश ने श्रुति प्रभला को शुभाशीष दिया . कार्यक्रम का प्रभावी संचालन बारी-बारी से शगुफ्ता परवीन, श्रीकुमार पाण्डेय और सुमित शर्मा ने किया . समारोह में रश्मि लता मिश्रा, डॉ सुनीता मिश्रा, डॉ अजय श्रीवास्तव, देवधर महंत, जेडी पटेल, मनीष सक्सेना, पूर्णिमा तिवारी, विपुल तिवारी, विकास राजपूत, रितेश नायडू, रितेश शर्मा, प्रफुल्ल शर्मा, अनिल तिवारी, सौमित्र तिवारी, प्रो कुजूर सहित बड़ी संख्या में साहित्यकार, समाजसेवी, पत्रकार और गणमान्य-जन शामिल उपस्थित थे .