नरधा में कबीर भजन ; अजपा जाप जपो भाई साधो…
श्रुति प्रभला और डॉ चितरंजन कर ने कबीर का आंगन दिव्य सुरों से सजा दिया…

नरधा में कबीर भजन ; अजपा जाप जपो भाई साधो…श्रुति प्रभला और डॉ चितरंजन कर ने कबीर का आंगन दिव्य सुरों से सजा दिया…

छत्तीसगढ़ की धार्मिक नगरी शिवरीनारायण के निकट, महानदी के तीरे एक छोटे से गाँव नरधा (टुण्डरा) में संत शिरोमणि सतगुरु कबीर साहेब के भजन पूरे शास्त्रीय अंदाज़ में सुनना मन-मस्तिष्क को भाव-विभोर कर गया . यह कबीर प्राकट्य दिवस की शाम थी . नरधा, कबीर पर केन्द्रित दो पीढ़ियों के सुमधुर और भावपूर्ण गीतों का संगम स्थल बन गया . प्रख्यात भाषाविद, साहित्यकार और संगीतकार डा. चितरंजन कर (रायपुर) और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पुरस्कृत शास्त्रीय गायिका श्रुति प्रभला (बिलासपुर) ने संत कबीर दास के सरल जीवन के जीवंत गीतात्मक दर्शन कराये .
कार्यक्रम दो सत्रों मे संपन्न हुआ . प्रथम सत्र में प्रख्यात कवि-गुरु डा. चित्तरंजन कर और नवोदित शास्त्रीय गायिका श्रुति प्रभला को जोगनबाई टीपसूदास मानिकपुरी स्मृति सम्मान 2023 से सम्मानित किया गया . इस आत्मीय सम्मान में उन्हें स्मृति चिन्ह, सम्मान पत्र, शाल और श्रीफल भेंट किया गया . कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में वरिष्ठ साहित्यकार डॉ देवधर महंत तथा विशिष्ट अतिथि ज्योत्सना महंत, सांसद कोरबा के प्रतिनिधि पोषक महंत, समाजसेवी जगदीश राजन एवं पत्रकार कल्याण संघ के प्रदेशाध्यक्ष सेवक दीवान तथा बोधीदास मानिकपुरी की गरिमामयी उपस्थिति रही .
द्वितीय सत्र में श्रुति प्रभला ने कबीर के प्रसिद्ध पद “अजपा जाप जपो भाई साधो, सांसों की कर लो माला” से कबीर गायन की मधुर और कर्णप्रिय शुरुआत कर श्रोताओं को अभिभूत कर दिया . हारमोनियम पर स्वयं श्रुति प्रभला की अंगुलियां थिरक रही थीं वहीं तबले पर दीपक कुमार साहू और बांसुरी पर सैभ्य कुमार साहू संगत कर रहे थे .
श्रुति अपनी हर प्रस्तुति से पहले अपनी समझ से कबीर को समझाती चलती है . कहती है, हिंदी साहित्य जगत में कबीर जैसा धनी विचारक, चिन्तक और कोई नहीं हुआ . कबीर जीवन-शैली है . कबीर साहित्य की सबसे बड़ी विशेषता है भाषा की सरलता . गूढ़ से गूढ़ बातें भी सरल जुबान में समझाने का हुनर था कबीर के पास . अजपा जाप…ऐसी ही कृति है जिसमें उच्चारण नहीं किया जाता अपितु इसे श्वास और प्रतिश्वास के गमन और आगमन से सम्पादित किया जाता है .


गायन श्रृंखला में श्रुति की दूसरी प्रस्तुति थी “मोको कहां ढूंढे बंदे, मैं तो तेरे पास में,”…श्रुति ने इसे कर्नाटक संगीत शैली के राग बिंदुमालिनी में सजाया था . भावार्थ है…ऐ बंदे, तू मुझे कहाँ ढूँढ़ता फिर रहा है, मैं तो तेरे पास ही हूँ . न मैं मंदिर में मिलूँगा, न मस्जिद में, और न ही काबे और कैलाश में . सच्चे मन से खोजने वाले को मैं पल-भर की तलाश में मिल जाऊँगा . कबीर कहते हैं, भाई साधु सुनो, “वह” तो हर साँस में मौजूद है .
श्रुति ने परम सतगुरु कबीर की वाणी को विस्तार दिया…“नर तुम झूठे जन्म गवाया, उस झूठे का कोई अन्त न पाया” . सच ही कहा गया है कि इस संसार में चहुँ ओर झूठ का बोलबाला है, ऐसा झूठ जिसका कोई आदि है न अन्त .
श्रुति ने कबीर की गूढ़ अर्थों वाली दिव्य वाणी के शास्त्रीय पक्ष को उजागर किया “नैया मोरी निके निके चालण लागी, आँधी मेघा, कछु ना व्यापे, चढ़े संत बड़ भागी” में . यह भजन राग मांड में निबद्ध था . चंचल प्रकृति के इस राग में श्रुति ने पूरे मनोयोग से भक्ति की भावधारा प्रवाहित की जिससे उपस्थित श्रोताओं का मन-मयूर नाच उठा . श्रुति बताती है, कबीर साहेब कहते हैं- जो सहज ही अपनी नाव खेता है उसे गंतव्य तक पहुँचने में कोई बाधा नहीं आती .
भजन-संध्या परवान चढ़ रही थी . संत कबीर के भजनों में गजब का आकर्षण होता है . उनके विचारों में डूबकर परम तत्व का सहज ही अहसास होता है . जीवन की सामान्य-सी घटनाओं से वे हमें सच से सीधे साक्षात्कार कराते हैं . “कुछ लेना ना देना मगन रहना” में ऐसे ही भाव समाहित हैं . श्रुति ने आगे गाया…“पाँच तत्व का बना रे पिंजरा, जा में बोले मेरी मैना, कुछ लेना ना देना मगन रहना”. कबीर साफ़ कह रहे हैं कि दुनिया के माया-जाल से दूर अपने ईष्ट की आराधना में लीन रहकर ही इस शरीर के बंधन से मुक्ति मिल सकती है .
कबीर की दिव्य वाणी माहौल में घुली ही हुई थी तभी, श्रुति ने माता शबरी के “राम” को भी याद किया . “जय रघुनंदन जय सियाराम, हे दुखभंजन तुम्हें प्रणाम” और “रामा-रामा रटते-रटते बीती रे उमरिया” जैसी अनेक सरस, आकर्षक और सांगीतिक प्रस्तुतियों से उसने श्रोताओं का दिल जीत लिया .


श्रुति प्रभला के बाद डा.चितरंजन कर मंचासीन हुए . उन्होंने “भजो रे मन राम गोविंद हरे” से अपने गायन की शानदार शुरुआत कर वातावरण में मिठास घोल दी . इसी क्रम में उन्होंने “घूंघट के पट खोल रे, तोहे पिया मिलेंगे” तथा “या विधि मन को लगावे, मन को लगावे प्रभुजी” जैसी अनेक खूबसूरत प्रस्तुतियों से श्रोताओं का मन मोह लिया . तबले पर शानदार संगत रूपेन्द्र श्रीवास्तव ने की .
डा.चितरंजन कर के राग जयजयवंती में गाये मार्मिक पद “नैहरवा हमका न भावे” में तो वातावरण में मानों ब्रह्मानंद की सृष्टि हो गई .
“नैहरवा हमका न भावे।
साईं की नगरी परम अति सुन्दर जहं कोई जाए न आवे।
चांद-सुरुज जहं पवन न पानी, को संदेश पहुंचावे।
दरद ये साईं को सुनावे।
आगे चले पंथ नहीं सूझे, पीछे दोष लगावे।
केहि विधि ससुरे जाउं मोरी सजनी, बिरहा जोर जरावे।
विषै रस नाच नचावे।
बिन सतगुरु अपनों नहिं कोई, जो यह राह बतावे।
कहत कबीर सुनो भाई साधो, सुपनन प्रीतम आवे।
तपन यह जिय की बुझावे।”
विरह विदग्धा दुल्हन जीवात्मा है और दुल्हा परमात्मा है। जीवात्मा को उसका मायका अर्थात् यह संसार तनिक भी अच्छा नहीं लगता। जीवात्मा अपने प्रियतम परमात्मा से मिलने के लिए उत्कंठित है। वह यथाशीघ्र अपने स्थायी निवास स्थल अपनी ससुराल अर्थात् परमात्मा की नगरी पहुंचने के लिए आकुल-व्याकुल, व्यथित, व्यग्र है।
इसके बाद डॉ कर ने “चदरिया चलती बिरिया” गाकर सबको अभिभूत कर दिया . कबीर का आंगन दिव्य सुरों में सजा दिया . कबीर अनुयायी, डॉ कर के भजनों पर देर रात तक भक्ति भव-सागर में गोते लगाते रहे .
एक ख़ास बात और, नरधा के मोतीदास मानिकपुरी प्रतिवर्ष अपने माता-पिता की स्मृति में 19-20 मई को भव्य स्मृति समारोह आयोजित करते हैं . अगले दिन, 20 मई को चौका-आरती के साथ इस भव्य आयोजन का समापन हुआ . कहना न होगा, पूरा नरधा गांव 19 और 20 मई को आस्था और श्रद्धा से अनुप्राणित रहा . अनुयायियों ने भजन, सत्संग सुना और कबीर के बताए मार्ग पर चलने का संकल्प दोहराया . जाहिर तौर पर, इस सफल आयोजन की सर्वत्र चर्चा हो रही है .

सम्पादक

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